गुरुवार, 5 मई 2016

और क्या कहूँ ?

इक आसूँ पिघल आया आज फिर उसकी जलती हुई आखों में
और सुलग उठा फिर से उसका मन का सुखा हुआ कोना

ये नहीं जानती वो कि उसका गुनाह क्या है 
उसके अपनों  की उससे बेरुखी की वजह क्या है 

वो बताये भी तो कैसे उसे कि अब टूट जायेगी सांस उसकी
वो कैसे समझाए उसे कि अब बिखर जायेगी आवाज उसकी

दिल चीर के भी तो वो उसे दिखा नहीं  सकती 
कौन है मन के कोने में उसे समझा नहीं सकती 

वो कैसे बताये उसे की खुद के आसूँ और ना पोछ सकेगी वो
वो कैसे बताये कि खुद को  टूटने से और ना रोक सकेगी वो

इस नाउम्मीदी के दौर में उसे किसी से उम्मीद सी जगी है
उसकी आसुंओं से टिमटिमाती आखों में रौशनी से दिखी है

बस उसे इसे बार ना गिरा देना , इस बार ना हाथ छुड़ा लेना
कुछ भी कहे और करे ये जहाँ उसे बस अपना बना लेना|







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